जीवन का आखिरी दिन
जाने से पहले हे मुखर !
तुम क्या ले लिए थे मौन ?
क्या सदा के लिए जाने से ही
मौन हो देख रहे थे मेरी ओर ...
मेरी दबाव भरी बेतुकी डाट
सुनकर भी मन तुम्हारा शांत था .
अपने जूते के फीते बांधते हुए
तुम्हे देख मेरा मन ठिठक गया ..
तुमसे नज़रें मिलीं पर पूछने
या कहने को शब्द ना निकला ..
और तभी तुम घर से बाहर हुए
लगा कि सब कुछ चला गया ..
पल-पल छिन-छिन देखी राह
कि कहाँ गए हो तुम ??
क्यों शाम तक हमेशा कि तरह
घर नहीं लौट रहे हो तुम ??
किसी अज्ञात आशंका से
मन बहुत विचलित हुआ |
लगा कि किसी संकट में
तो नहीं फस गए हो तुम |
रह-रहकर मन तुम्हे ढूँढ़ने
जाने को उद्धत होता रहा ...
पर किस दिशा में मिलोगे
कहाँ यह स्पष्ट दिखाई न दिया |
किसी तरह शांत हो मन को
दूसरे कामों में लगाया |
बीच बीच में द्वार पर खड़े होकर
आती जाती भीड़ में ढूढ़ा तुम्हें |
और देर रात जब तुम
घर वापिस लौट आये थे ...
तो बजाये हाल पूछने के
फिर डांटा था मैनें तुम्हें |
तुमने अपने हाँथ से खाना परोसा और कुछ न बोले |
मैने अपने सोने से पहले देखा तुम शांत लेटे थे |
उस रात मैने
अज्ञात आशंका को
अपनी मूर्खता समझा !
निशचिंतता की
गहरी नींद लेकर...
रात भर सोये थे,
लेकिन
भोर होते ही
आह के साथ देखा
तुम्हारा कमरा सूना था
आगे बढ़कर कमरे के बाहर
तुम्हें निर्जीव- सा पड़ा देखा
बुलाने का प्रति उत्तर न मिलने पर छूकर देखा ..
यह तुम नहीं ...
केवल तुम्हारा शरीर है.. विशवास से परे था
धीरे- धीरे यह मानना पड़ा कि
तुम चाँद बनकर दूर दिखाई दे रहे हो...
क्या अब तुम मुझे कभी नहीं मिलोगे ?
- - श्रीमती इंदिरा जैन
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